राजा की रानी
कहा, “नहीं, नहीं जायेगा।”
“लेकिन जाने से कुछ भला न होगा तो बुरा भी तो न होगा। साथ चलने दो न?”
“नहीं। भला-बुरा कुछ भी हो, वह साथ नहीं चलेगा। उसे जो कुछ देना हो दे- दिलाकर यहीं से बिदा कर दो। ग्रह शान्त करने की क्षमता और साधुता अगर उसमें हो भी, तो तुम्हारी ऑंखों की आड़ में ही वह करे।”
“तो यही कह देती हूँ,” कहकर रतन को उसे बुलाने के लिए भेज दिया। नहीं जानता कि उसे क्या दिया, पर कई बार माथा हिलाकर और अनेक आशीर्वाद देकर हँसते हुए ही उसने बिदा ली।
थोड़ी देर बाद ही ट्रेन आकर हाजिर हुई और हम कलकत्ते को चल दिये।
12
राजलक्ष्मी के एक प्रश्न के उत्तर में रुपयों की प्राप्ति का किस्सा बताना पड़ा। “हमारे बर्मा ऑफिस से एक ऊँचे दर्जे के साहब बने घुड़दौड़ में सर्वस्व गँवाकर मेरे इकट्ठे किये हुए रुपये उधार ले लिये थे और खुद ही उन्होंने यह शर्त की थी कि सिर्फ सूद ही नहीं, बल्कि अगर अच्छे दिन आए तो मुनाफे का भी आधा हिस्सा देंगे। इस बार कलकत्ते लौटकर रुपये माँगने पर उन्होंने कर्ज का चौगुना रुपया भेज दिया। बस यही मेरी पूँजी है।”
“वह कितनी है?”
“मेरे लिए तो बहुत है, पर तुम्हारे निकट अतिशय तुच्छ।”
“सुनूँ तो कितनी?”
“सात-आठ हजार!”
“वह मुझे देनी होगी।”
डर से कहा, “यह कैसी बात है! लक्ष्मी तो दान ही करती हैं, वे हाथ भी फैलाती हैं क्या?”
राजलक्ष्मी ने सहास्य कहा, “लक्ष्मी अपव्यय सहन नहीं करतीं और अयोग्य समझकर सन्यासी फकीरों का विश्वास नहीं करतीं। लाओ रुपये।”
“क्या करोगी?”
“अपने खाने-कपड़े की व्यवस्था करूँगी। अब से यही होगा मेरे जीवित रहने का मूलधन।”
“पर इतने-से मूलधन से काम कैसे चलेगा? तुम्हारे झुण्ड के झुण्ड नौकर-नौकरानियों की पन्द्रह दिन की तनख्वाह भी तो इससे पूरी नहीं होगी। इसके अलावा गुरु-पुरोहित हैं, तैंतीस करोड़ देवता हैं, बहुत-सी विधवाओं का भरण-पोषण है- उनका क्या उपाय होगा?”
“इनके लिए फिक्र मत करो, उनका मुँह बन्द न होगा। मैं अपने ही भरण-पोषण की बात सोच रही हूँ। समझे?”
कहा, “समझ गया। अब से अपने को एक माया में भुलाये रखना चाहती हो- यही न?”
राजलक्ष्मी ने कहा, “नहीं, सो नहीं। वह सब रुपया दूसरे कामों के लिए है। मेरे भविष्य की पूँजी वही होगा, जो अब से तुम्हारे सामने हाथ पसारने पर मिलेगा। उसी से भरपेट खाऊँगी, नहीं तो उपवास करूँगी।”
“तो तुम्हारे भाग्य से यही लिखा है!”
“क्या लिखा है- उपवास?” यह कहकर उसने हँसते हुए कहा, “तुम सोच रहे हो कि साधारण-सी पूँजी है, पर वह विद्या मैं जानती हूँ कि साधारण ही किस तरह बढ़ाया जाता है। एक दिन समझोगे कि मेरे धन के बारे में तुम जो सन्देह करते हो वह सच नहीं है।”
“यह बात तुमने इतने दिनों से क्यों नहीं कही?”
“इसीलिए नहीं कही कि विश्वास नहीं करोगे। मेरा रुपया तुम घृणा के मारे छूते तक नहीं, पर तुम्हारी घृणा से मेरी छाती फट जाती है।”
व्यथित होकर कहा, “अचानक आज ये सब बातें क्यों कह रही हो लक्ष्मी?”